महाभारत की कथा (Mahabharat story)
महाभारत द्वापरयुग में भाइयों के मध्य सम्पत्ति के लिए लड़ा गया युद्ध था। एक ओर धृतराष्ट्र और गांधारी के सौ पुत्र कौरव थे वहीं दूसरी ओर पांडु और कुंती तथा माद्री से उत्पन्न पाँच पुत्र पांडव थे। कौरवों का पक्ष अधर्म का था एवं पांडवों का पक्ष धर्म का कहा गया है। सम्पत्ति के साथ ही यहाँ एक प्रसंग का उल्लेख करना अनिवार्य जान पड़ता है कि कौरवों ने पांडवों को न केवल वनवास भेजा बल्कि उन्हें मारने की भी योजनाएं बनाईं। किन्तु पांडवों का पक्ष धर्म का था एवं धर्म के साथ परमात्मा होते हैं सो वे बचते रहे। पांडवों का महल देखते समय द्रौपदी के दुर्योधन पर उपहास ने उसे उस स्थिति पर ला खड़ा किया जब भरी सभा में गुरुजनों के मध्य पांडवों को छल से चौपड़ (जुए) के खेल में हराया एवं द्रौपदी को निर्वस्त्र करने की घटना हुई। तब द्रौपदी द्वारा पिछले जन्म में किये वस्त्र दान से पूर्ण परमेश्वर कविर्देव द्वारा लाज बचाई गई। इसके बाद आरम्भ हुई युद्ध की भूमिका एवं रचा गया इतिहास का सबसे बड़ा महायुद्ध- महाभारत।
गीता उपदेश एवं पांडवों की विजय
पांडवों और कौरवों के मध्य युद्ध होने के पूर्व के कई प्रसंग हैं। भगवान श्री कृष्ण ने दोनों पक्षों को समझाकर इस युद्ध को टालने का यथासंभव प्रयास किया किन्तु अंततः असफल रहे। युद्ध हुआ एवं कृष्ण की सेना कौरवों ने ली और श्री कृष्ण स्वयं सारथी बनकर अर्जुन के साथ यानी पांडवों के पक्ष में रहे। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि कृष्ण भगवान ने स्वयं हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा ले रखी थी। महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के भीतर अहिंसा का भाव उदित हुआ। अर्जुन ने अपने भाइयों एवं अपने गुरुजनों पर हथियार उठाकर पाप न करने का विचार अपने सारथी भगवान श्री कृष्ण के समक्ष रखा। तब भगवान कृष्ण ने कहा युद्ध करना ही पड़ेगा।
यहां ध्यान दें जो कृष्ण युद्ध न करने के लिए समझाते रहे वे अब कहते हैं युद्ध करना पड़ेगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 37 एवं 38)। साथ ही यह रहस्य अब तक छिपा रहा कि गीता का ज्ञान कृष्ण ने नहीं बल्कि उनके पिता ज्योति निरजंन/ क्षर पुरुष ने दिया है जिसने अर्जुन को निमित्त बनकर मारने के लिए प्रेरित किया (गीता अध्याय 11 श्लोक 33)। प्रमाणों सहित जानने के लिए देखें गीता का ज्ञान काल भगवान ने दिया ततपश्चात अर्जुन ने युद्ध किया। अनेकों हत्याओं, मार-काट और रक्त संघर्ष के पश्चात महाभारत के युद्ध में पांडव विजयी हुए एवं कौरव मारे गए।
पांडवों के सिर पर लगा युद्ध का पाप
इंद्रप्रस्थ पर राजतिलक होने एवं राजा की गद्दी संभालने के बाद ही युधिष्ठिर को बुरे सपने आने प्रारम्भ हो गए। उन सपनों में युद्ध की हिंसा, अनाथ बच्चों का विलाप और विधवाओं का रुदन एवं बुरी तरह बिलखते लोग दिखाई देने लगे। लगातार आ रहे इन स्वप्नों के कारण युधिष्ठिर परेशान रहने लगे जिसका कारण अन्य चारों भाइयों द्वारा ज़ोर डालने पर उन्होंने बताया। कृष्ण जी पांडवों के गुरु थे (गीता अध्याय 2 श्लोक 27 एवं गीता अध्याय 4 श्लोक 3)। तब पांडवों ने अपने गुरु श्री कृष्ण से इसका कारण पूछा। कृष्ण जी ने बताया कि युद्ध के कारण पांडवों के सिर पर हिंसा और बन्धुघात का महापाप है। इसके लिये एक अश्वमेघ यज्ञ श्री कृष्ण जी ने बताई जिसमें पूरी पृथ्वी सहित साधु, सन्तों, ऋषियों, देवताओं को भी भोजन कराने की बात उन्होंने कही।
एक पंचायन यानी पंचमुखी शंख रखा जाएगा जो सभी के भोजन करने के पश्चात बजेगा जिससे पांडवों के सिर पर तीन ताप के कष्ट का खत्म होना बताया। यदि शंख नहीं बजा तो यज्ञ असफल मानी जायेगी। गीता अध्याय 3 श्लोक 13 में भी ऐसा समाधान है। अर्जुन यह सुनकर हतप्रभ रह गए थे कि श्री कृष्ण ने तो युद्ध में कहा कोई पाप नहीं लगेगा फिर यह कैसी बात। किन्तु वे शांत रहे। वास्तव में महाभारत के युद्ध में गीता ज्ञान देने वाले कृष्ण नहीं बल्कि काल भगवान थे।
पांडवों की यज्ञ में शंख न बजना
तो भगवान कृष्ण के कहे अनुसार खरबों धनराशि खर्च कर यह यज्ञ एवं भोज आयोजित किया गया। पंचमुखी शंख को एक स्थान पर रख दिया गया। अठासी हजार ऋषियों समेत सभी ऋषि, महर्षि, ब्रह्मर्षि, नौ नाथ, चौरासी सिद्ध, योगी, तीनों लोकों के देवता, छप्पन करोड़ यादव, बारह करोड़ ब्राह्मण, तैंतीस करोड़ देवता, सामान्य जनता सहित कृष्ण जी ने भी भोजन किया किन्तु शंख नहीं बजा। तब युधिष्ठिर ने इसका कारण पूछा और कृष्ण जी ने कहा कि इस पूरी सभा में कोई भी पूर्ण संत (सत्यनाम अथवा सारनाम उपासक) नहीं है।
तब युधिष्ठिर ने पूरी पृथ्वी के संत रहित होने की शंका जताई इस पर कृष्ण जी ने कहा कि यदि इस संसार मे पूर्ण संत न हों तो यह संसार जलकर भस्म हो जाएगा। चूंकि भगवान कृष्ण विष्णु अवतार थे अतः वे जानते थे कि अभी एक महात्मा जो काशी में हैं वह अभी यज्ञ में नही आया है। भीमसेन को बुलाकर पूछा गया कि उन संत जी को बुलाया अथवा नहीं। भीमसेन ने बताया कि सुपच संत जी जो वाल्मीकि जाति में गृहस्थी संत हैं उन्होंने आने से मना कर दिया एवं कहा कि ऐसे अन्न का भोजन करने से मुझे पाप लगेगा अतः पहले आप ऐसे किए 100 यज्ञों का फल मुझे दें तब मैं आऊंगा। तब भीमसेन उन सुपच संत जी का अपमान करके चले आए।
जब सुपच सुदर्शन जी को लेने स्वयं श्रीकृष्ण गए
यह घटना द्वापरयुग की है। पूर्ण परमेश्वर प्रत्येक युग मे भिन्न भिन्न नाम से अवतरित होते हैं एवं तत्वदर्शी संत की भूमिका करते हैं। उस समय वे करुणामय नाम से अवतरित हुए थे। उनके ही शिष्य थे सुपच सुदर्शन। सुपच सुदर्शन तत्वज्ञान समझकर तत्वदर्शी संत से नाम लेकर पूर्ण परमेश्वर की भक्ति किया करते थे। भीमसेन के उत्तर को सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि उस संत के एक रोम के बराबर तीनों लोकों में कोई नहीं है। पांचों पांडवों को साथ लेकर स्वयं श्री कृष्ण उस सच्चे संत को लेने पहुँचे। उधर सुपच सुदर्शन को तत्वदर्शी संत करुणामय रूप में परमेश्वर ने कहीं और भेज दिया और स्वयं सुपच का रूप धरकर झोपड़ी में बैठ गए।
इधर श्री कृष्ण ने एक योजन अर्थात 12 किलोमीटर दूर रथ खड़ा किया और नंगे पैर चले। कृष्ण जी को अपनी कुटिया पर आया देखकर सुपच सुदर्शन ने आने का कारण पूछा। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि पांडवों ने एक अश्वमेघ यज्ञ की है। भीमसेन ने आपकी शर्त से अवगत कराया। हे पूर्णब्रह्म आपके ज्ञान के अनुसार सन्तों से मिलने के लिए चला गया प्रत्येक कदम सौ यज्ञ के बराबर होता है। आज पांचों पांडव और मैं स्वयं द्वारकाधीश आपके समक्ष नंगे पांव उपस्थित हैं हमारे कदमों को यज्ञ समान फल दान करते हुए सौ आप रखें शेष हमें दान करें एवं हमारे साथ चलें।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर |
तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर ||
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सब देवन का देव |
कृष्णचन्द्र पग धोईया, करी तास की सेव ||
गरीब, पाँचौं पंडौं संग हैं, छठे कृष्ण मुरारि |
चलिये हमरी यज्ञ में, समर्थ सिरजनहार ||
गरीब, सहंस अठासी ऋषि जहां, देवा तेतीस कोटि |
शंख न बाज्या तास तैं, रहे चरण में लोटि ||
गरीब, पंडित द्वादश कोटि हैं, और चौरासी सिद्ध |
शंख न बाज्या तास तैं, पिये मान का मध ||
सुपच सुदर्शन जी का भोजन करना एवं पांडवों का शंख बजना
जब सुपच सुदर्शन रूप में पूर्ण परमेश्वर यज्ञशाला में पहुँचे तो उनका आसन अपने हाथों से स्वयं श्रीकृष्ण ने लगाया। सुपच सुदर्शन के अति साधारण रूप को देखकर वहाँ विराजमान सभी ऋषि एवं मंडलेश्वर हंसने लगे। स्वयं द्रोपदी भी शंकित हुई किन्तु आदेशानुसार भोजन बनाया। सुपच रूप में परमेश्वर ने नाना प्रकार के भोजन को थाली में एकसाथ मिलाया और पाँच ग्रास बनाकर खा लिया। द्रौपदी ने मन ही मन दुर्भावना से विचार किया कि न तो इसमें संत के लक्षण हैं और न खाने का ढंग। शंख से पाँच बार आवाज हुई और उसके पश्चात रुक गयी।
युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा कि शंख ने आवाज़ कर दी हमारी यज्ञ सम्पन्न हुई। तब श्रीकृष्ण ने कहा यह शंख अखंड बजता है। शक्तियुक्त कृष्ण ने जान लिया कि द्रौपदी के भीतर किस प्रकार की दुर्भावना है। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को सत्कार न करने एवं अंतःकरण मैला करने की गलती के लिए चेताया एवं तब उसने सुपच रूप में आए पूर्णब्रह्म से क्षमा मांगी। द्रौपदी सुपच रूप में आये परमेश्वर के चरण धोकर उस जल को पीने लगी तब थोड़ा जल श्री कृष्ण ने अपने लिए भी माँग लिया। उसी समय वह पंचायन शंख इतनी जोर से बजा की स्वर्ग लोक तक उसकी आवाज़ गई, तब पांडवों की यज्ञ सफल हुई।
गरीब, द्रौपदी दिल कूं साफ करि, चरण कमल ल्यौ लाय |
बालमीक के बाल सम, त्रिलोकी नहीं पाय ||
गरीब, चरण कमल कूं धोय करि, ले द्रौपदी प्रसाद |
अंतर सीना साफ होय, जरैं सकल अपराध ||
गरीब, बाज्या शंख सुभान गति, कण कण भई अवाज |
स्वर्ग लोक बानी सुनी, त्रिलोकी में गाज ||
गरीब, शरण कबीर जो गहे, टुटै जम की बंध |
बंदी छोड़ अनादि है, सतगुरु कृपा सिन्धु ||
गरीब, पंडों यज्ञ अश्वमेघ में आये नजर निहाल |
जम राजा की बंधि में, खल हल पर्या कमाल ||
गरीब, ब्रह्म परायण परम पद, सुपच रूप धरि आय |
बालमीक का नाम धरि, बंधि छुटाई जाय ||
महाभारत युद्ध के दौरान काल के वचन “बलवानों का बल व बुद्धि काल के हाथ में”
तब सुपच रूप पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब ने दो घण्टे सत्संग किया और सभी को तत्वज्ञान समझाया। किन्तु बुद्धि पर काल ब्रह्म का अधिकार होता है, गीता अध्याय 7 के श्लोक 8 एवं 9 में कहा है कि बलवानों की बुद्धि उसके हाथ में है। अभिमान और काल वश बुद्धि के कारण वहाँ उपस्थित जनसमुदाय परमेश्वर कबीर साहेब की शरण में नहीं आया।
बलवान तो श्रीकृष्ण भी थे। लेकिन स्वयं भगवान विष्णु का अवतार होने के बाद भी वे गीता ज्ञान याद नहीं रख सके क्योंकि गीता का ज्ञान क्षर पुरूष ने दिया था। ऐसे ही जब श्रीराम सीता वियोग में निराश बैठे थे तब शिवजी ने अपने ही लोक से उन्हें प्रणाम किया। तब पार्वती के पूछने पर उन्होंने बताया कि वे श्री विष्णु के अवतार हैं किंतु पार्वती ने परीक्षा लेने की इच्छा जताई। तब शिवजी ने उन्हें मना किया किन्तु पार्वती छिपकर सीता का रूप धरकर राम के समक्ष जा खड़ी हुईं। श्रीराम सीता का पता नहीं लगा पा रहे थे कि वे कहाँ हैं किंतु काल भगवान ने कुछ क्षणों के लिए बुद्धि खोली तब वे सीता रूप में आईं पार्वती को पहचानकर बोले “हे दक्षपुत्री माया भगवान शंकर को कहाँ छोड़ आईं।” इस प्रकार काल भगवान बुद्धि नियंत्रित करते हैं।
महाभारत के युद्ध में हुई हिंसा के लिए श्रीकृष्ण का अंतिम उपदेश
महाभारत के कुछ वर्ष बाद दुर्वासा ऋषि के श्रापवश समस्त यादव कुल यमुना के किनारे आपस मे कटकर मर गए। उसी समय श्री कृष्ण को त्रेतायुग में बाली वाली आत्मा ने द्वापरयुग में शिकारी बनकर धोखे से विषाक्त तीर मारा। पांचों पांडव उस समय श्रीकृष्ण के पास पहुँचे तब श्री कृष्ण ने अंतिम दो उपदेश पांडवों को दिए पहला ये कि सभी यादवों के मर जाने के कारण द्वारिका की स्त्रियों को इंद्रप्रस्थ ले जाना क्योंकि वहां कोई भी नर यादव शेष नहीं बचा था। दूसरा यह कि पांचों पांडव युद्ध में की गई हिंसा के कारण अत्यंत पाप से ग्रस्त हैं अतः वे हिमालय में जाकर शरीर गल जाने तक तपस्या करें।
अर्जुन पहले से ही हतप्रभ थे तब उन्होंने गीता अध्याय 2 के श्लोक 37, 38 एवं अध्याय 11 के 32, 33 श्लोक के संदर्भ से पूछा कि कृष्ण ने उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए ऐसा क्यों कहा था कि उसे पाप नहीं लगेगा और अब पाप बता रहे हैं। तब श्री कृष्ण ने बताया कि गीता में कहे गए ज्ञान का उन्हें तनिक भी भान नहीं है। यह जो कुछ भी हुआ उसे टालना उनके वश का नहीं था। किंतु यह तपस्या की अंतिम राय आपके भले के लिए है।
अर्जुन का भीलों से पिटना
श्रीकृष्ण की मृत्यु के उपरांत जब अर्जुन द्वारका की सभी स्त्रियों को लेकर लौटने लगे तब रास्ते मे जंगली लोगों ने अर्जुन को न केवल पीटा बल्कि कुछ स्त्रियां एवं धन, गहने लूट कर ले गए। अर्जुन के पास उस समय वह गांडीव धनुष भी था जिससे उसने महाभारत का युद्ध जीता था किन्तु वह किसी काम नहीं आया बल्कि उल्टे अर्जुन को पिटना पड़ा। तब अर्जुन ने कहा कि कृष्ण छलिया हैं जब संहार करवाना था तब शक्ति दे दी। जिस धनुष से लाखों का संहार किया उसी धनुष से आज कुछ न कर पाया। वास्तव में छलिया तो क्षर पुरुष हैं जिन्होंने कृष्ण के धोखे में गीता का ज्ञान दिया और अर्जुन के हाथों नर संहार करवाकर उनके सिर पर पाप लादा।
क्या पांडवों की तपस्या से नष्ट हुए पाप?
इस काल लोक का विधान है अनजाने और जानते हुए अर्थात दोनों ही स्थिति में किये हुए कर्मों के प्रति जीव उत्तरदायी है। साथ ही इन 21 ब्रह्मांडो के स्वामी क्षर पुरूष ने गीता में स्पष्ट कर दिया है कि घोर तप को तपने वाले दम्भी एवं राक्षस स्वभाव के हैं। शास्त्र में वर्णित विधि न होने के कारण गीता अध्याय 16 श्लोक 23, गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 के अनुसार पांडवों की तपस्या मनमाना आचरण थी। अतः पांडवों की वह तपस्या भी व्यर्थ सिद्ध हुई। गीता अध्याय 6 के श्लोक 3 से 8 में भी हठयोग वर्जित बताया है। अतः पांडव पापमुक्त नहीं हुए। काल बुद्धि हर लेता है। काल ने जिस कृष्ण के शरीर मे प्रविष्ट होकर जो ज्ञान सुनाया वही ज्ञान कृष्ण भूल गए किन्तु महर्षि वेदव्यास द्वारा लिपिबद्ध करवा दिया।
तत्वदर्शी संत की शरण में जाने से सभी बलाए टल जाती हैं
कल्पना भी नहीं की जा सकती कि हजारों ऋषि, महर्षि तत्वदर्शी संत को नहीं पा सके और उनकी साधना व्यर्थ रही। वे केवल ब्रह्मलोक की साधना कर सके जिसके कारण वे पुनः पृथ्वी लोक में अन्य योनियों में आएंगे क्योंकि गीता अध्याय 8 के श्लोक 16 के अनुसार ब्रह्मलोक पर्यंत सभी पुनरावृत्ति में हैं। गीता ज्ञानदाता स्वयं मुक्ति का मार्ग नहीं बता सके इसलिए उन्होंने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में पूर्ण तत्वदर्शी संत की शरण में जाने के लिए कहा। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में पूर्ण परमेश्वर को पाने का मन्त्र बताया एवं नित्य कर्म करते हुए भक्ति करने की सलाह दी गई है।
विचार करें जब धर्मराय लेखा लेगा तब वहां आप भक्ति न करने का क्या बहाना बनाएंगे? जहाँ कोई दलीलें नहीं चलतीं। आज दुर्लभतम संत यानी पूर्ण तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज हमारे बीच विराजमान हैं। यह भक्ति एवं भक्ति मन्त्र (सारनाम, सतनाम) ऋषियों मुनियों को भी नहीं मिलें जो आज हमें सहज उपलब्ध है। अतः देर न करते हुए अतिशीघ्र तत्वदर्शी संत की शरण में आएं एवं अपना कल्याण करवाएं अन्यथा चौरासी लाख योनियों एवं नरक के चक्कर काटने होंगे।